Saturday, August 28, 2010

आखिर ये हो क्या रहा है.....................

मानव सभ्यता के विकाश के साथ ही मनुष्य में एक स्वाभाविक प्रवृति स्नेह ,आकांक्षा ,आकर्षण और अनेक इसी तरह की भावनाओ का भी विकाश हुआ होगा . लेकिन विकास के साथ साथ इसकी प्रकृति में इतना बदलाव आ सकता है मैंने कभी नहीं सोचा था .
किसी शायर ने कहा है कि-
"हम आंह भी भरते है तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती."
मेरा मानना है कि आज इसका इश्त्मल लोग आपनी गलतियों को छुपाने के लिए ही किया करते हैं ................
लोगो में एक दुसरे पर कीचड़ उछलने कि जिस प्रवृति का विकाश हो रहा उसका चरम क्या होगा यह मेरे सोच से परे दिख रहा है.
खुद कि गलतियों को छोटा करने के लिए दुसरे कि गलतियों को तोड़ मरोड़ कर पेश करना एक फितरत सी बनते जा रही है .
आज स्नेह का भी स्वरुप बदल सा गया है . शायद इसकी भी मार्केटिंग हो गया है और यह भी मार्केट से पूरा पूरा प्रभावित सा दीखता है.सामान्य सा दिखने वाले माता -पिता अपने बच्चे के लिए आया का प्यार खरीद रहे है तो उनके कुछ बड़े हो जाने पर उनके लिए बोर्डिंग शिक्षा.
सबसे विकृति तो प्यार शब्द के अर्थ में आया है ........................................शायद इसका जिक्र करना यहाँ उचित नहीं होगा .
समर्पण तो दीखता ही नहीं दीखता तो कुछ और ही है ........................................आशा करता हूँ कि आप इसे बेहतर समझ और परिभाषित कर सकते हैं.

आज कि होने वाली तमाम तरह कि गतिविधिया क्या मार्केट से ही प्रभावित है या मार्केट ही उनसे समझना मुस्किल सा हो रहा है.
शायद मैंने आज विषय ही गलत चुन लिया है जिस पर मेरी कोई पकड़ बहुत ढीली है और मई चाहता भी हूँ कि इसपर पकड़ ढीली ही रहे क्योंकि इसे जानने और समझने से कल्याण कि अपेक्षा ही गलत है.

No comments:

Post a Comment